नई दिल्ली ओबीसी आरक्षण का जब भी जिक्र होगा तो दो नाम जेहन में जरूर आएंगे- मंडल आयोग और विश्वनाथ प्रताप सिंह। अगस्त 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने केंद्र सरकार की नौकरियों में 27 प्रतिशत ओबीसी कोटा लागू करने का ऐतिहासिक ऐलान किया था। आलोचक बताते हैं जल्दबाजी में लिया गया फैसला आलोचक लंबे वक्त से कहते रहे हैं कि यह वीपी सिंह का जल्दबाजी में लिया गया राजनीतिक फैसला था। इसके पीछे दलील यह दी जाती है कि डेप्युटी पीएम देवी लाल के इस्तीफे के बाद पार्टी सांसदों का समर्थन बरकरार रखने के लिए वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का फैसला किया था। हालांकि, एक नई किताब में खुलासा हुआ है कि वीपी सिंह ने जल्दबाजी में नहीं, बहुत सोच विचार के बाद फैसला लिया था। किताब में दावा- पीएम बनते ही मंडल रिपोर्ट वीपी के अजेंडे में था वीपी सिंह पर लिखी पत्रकार देबाशीष मुखर्जी की नई किताब 'द डिसरप्टर : हाउ विश्वनाथ प्रताप सिंह शुक इंडिया' में यह दावा किया गया है। किताब के मुताबिक, प्रधानमंत्री बनने के कुछ ही हफ्तों के भीतर सिंह ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने के लिए ग्राउंडवर्क शुरू कर दिया था। पीएम बनने के कुछ दिनों में ही मंडल पर 'ऐक्शन प्लान' का ऐलान विश्वनाथ प्रताप सिंह दिसंबर 1989 में प्रधानमंत्री बने। इसके साथ ही उन्होंने ओबीसी आरक्षण पर आगे बढ़ने की प्रक्रिया शुरू कर दी। 25 दिसंबर 1989 को उन्होंने इसके लिए एक 'ऐक्शन प्लान' का ऐलान किया और पूरी प्रक्रिया की निगरानी के लिए देवी लाल की अगुआई में एक कमिटी का गठन किया। इसके अलावा उन्होंने सामाजिक कल्याण मंत्रालय को निर्देश दिया कि वह मंडल रिपोर्ट में दर्ज पिछड़ी जातियों की लिस्ट का मिलान हर राज्यों की उस लिस्ट से करे जिनका कुछ पहले से इस्तेमाल कर रहे थे। इस काम में सामाजिक कल्याण मंत्री राम विलास पासवान और मंत्रालय के सेक्रटरी पीएस कृष्णन ने उनकी मदद की। समाज कल्याण मंत्रालय के तत्कालीन सचिव पीएस कृष्णन की रही अहम भूमिका किताब में कृष्णन के हवाले से लिखा गया है, 'जनवरी 1990 में चार्ज संभालने के साथ ही मैंने एक अजेंडा तैयार किया कि किन-किन चीजों को करना है। इनमें सबसे ऊपर था मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करना।' केंद्र में मिली-जुली सरकार थी लिहाजा उन्हें भी मालूम था कि यह लंबे वक्त तक नहीं चलने वाली। इसलिए एक-एक पल की कीमत थी। कृष्णन के सुझाव पर सीनियर अफसरों ने जताई थी आपत्ति कृष्णन ने 1 मई 1990 को मंडल रिपोर्ट पर कैबिनेट को एक नोट लिखा। उसमें यह बताया कि रिपोर्ट लागू करने के लिए संसद की मंजूरी जरूरी नहीं है, इसके लिए महज एक एग्जिक्यूटिव ऑर्डर ही काफी होगा। दूसरे वरिष्ठ नौकरशाहों ने कैबिनेट के सामने इस पर आपत्ति भी जताई लेकिन कृष्णन ने उन सभी की दलीलों को खारिज कर दिया। किताब में कृष्णन के हवाले से लिखा गया है, 'कैबिनेट सेक्रटरी विनोद पांडे ने मुझसे कहा- वीपी सिंह के लिए हमें मंडल समस्या के खातिर कोई रास्ता निकालना होगा। तब मैंने पूछा- समस्या? उन्होंने तो मुझसे ऐसा नहीं कहा। वीपी सिंह तो मंडल को लागू करना चाहते हैं।' पीएस कृष्णन सामाजिक न्याय से जुड़े कानूनों के बहुत बड़े पैरोकार थे और बाद में उन्होंने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग में भी सेवाएं दीं। देवी लाल से मतभेद के चलते जल्दबाजी में मंडल पर आगे बढ़े वीपी? वीपी सिंह के आलोचक मंडल रिपोर्ट पर उनके कदम को राजनीतिक बताते हैं जिसकी एक मात्र वजह देवी लाल के साथ उनके मतभेद थे। उदाहरण के लिए तत्कालीन कपड़ा और खाद्य प्रसंस्करण मंत्री शरद यादव के मुताबिक प्रधानमंत्री ने मजबूरी में फैसला लिया था। 'गर्दन पकड़ के करवाया उनसे' किताब में यादव के हवाले से लिखा गया है, 'हम दोनों ही (शरद यादव और वीपी सिंह) ही मंडल कमिशन की रिपोर्ट को लेकर प्रतिबद्ध थे लेकिन वीपी सिंह इसे तत्काल लागू करने को लेकर बहुत ज्यादा उत्साहित नहीं थे। मैंने उनसे कहा- अगर आप चाहते हैं कि लोकदल (बी) के सांसद आपके साथ बने रहें तो आपके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। आप या तो इसे लाइए या फिर हम देवी लाल (उप प्रधानमंत्री जिन्होंने सिंह के साथ मतभेदों के बाद इस्तीफा दे दिया था) के साथ चले जाएंगे। गर्दन पकड़ के करवाया उनसे।' यह बात दीगर है कि रणनीति फेल हो गई और वीपी सिंह की सरकार 3 महीने बाद ही नवंबर 1990 में गिर गई। और सवर्णों में वीपी की छवि खलनायक की बन गई मंडल रिपोर्ट के खिलाफ देशभर में उग्र विरोध-प्रदर्शन हुए। शहरी मध्य वर्ग खासकर सवर्णों में वीपी सिंह की छवि खलनायक की हो गई। वे लोग जो सिंह के समर्थक हुआ करते थे, बिदक गए। राजनीतिक फायदे के लिए जातियों का इस्तेमाल होने लगा। बाद में वीपी सिंह ने खुद कहा था, 'मंडल के बाद लोगों की नजर में मेरी छवि पहले जैसी नहीं रही, लोग ऐसे देखने लगे जैसे मैं कोई दूसरा वीपी सिंह हूं।'
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