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आगरा शिखर वार्ता... इस एक मुद्दे पर अड़ गए जनरल मुशर्रफ और ठीकरा फोड़ा आडवाणी के सिर

लखनऊ हाल के दशकों में भारत और पाकिस्‍तान के बीच संबंध सुधारने को लेकर जो कोशिशें हुईं उनमें जुलाई 2001 की आगरा शिखर वार्ता का जिक्र जरूर होता है। ताजमहल के लिए मशहूर आगरा को उसकी गंगा-जमुनी साझी विरासत के लिए चुना गया, लेकिन अफसोस यहां भारत और पाक के बीच उच्‍चस्‍तरीय वार्ता तो हुई लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। उससे भी दिलचस्‍प बात यह कि जिस शख्‍स ने पाकिस्‍तान के सैन्‍य तानाशाह और भारतीय प्रधानमंत्री के बीच बातचीत का आइडिया दिया, वार्ता की नाकामी का ठीकरा उसी के स‍िर फोड़ा गया। आगरा शिखर वार्ता का जिक्र करने से पहले लाजिमी है कि बात 1999 के लाहौर समझौते की हो। फरवरी 1999 में भारत के तत्‍कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पहल पर पाकिस्‍तान के साथ लाहौर में वार्ता हुई। पाकिस्‍तान की ओर से जनता के चुने हुए प्रधानमंत्री नवाज शरीफ शामिल हुए। इसके नतीजों पर चर्चा करना इसलिए बेकार है क्‍योंकि इसमें लिए गए फैसले अमल में आते उससे पहले जुलाई 1999 में पाकिस्‍तान ने करगिल युद्ध छेड़ दिया। करगिल के मास्‍टर माइंड जनरल मुशर्रफकरगिल का आफ्टर इफेक्‍ट यह रहा कि भारत और पाकिस्‍तान के बीच दूरियां कम होने की जगह और बढ़ गईं। घटनाक्रम तेजी से बदल रहा था, अक्‍टूबर 1999 में पाकिस्‍तानी सेना के जनरल परवेज मुशर्रफ ने नवाज शरीफ का तख्‍तापलट दिया और सत्‍ता पर काबिज हो गए। परवेज मुशर्रफ ही करगिल युद्ध के सूत्रधार थे। अटल का 'युद्ध विराम' भारतीय सरकार की पूरी कोशिश रही कि पाकिस्‍तान को अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर अलग-थलग कर दिया जाए। भारत काफी हद तक कामयाब भी रहा। इस बीच प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने नवंबर 2000 में एक और साहसिक पहल की। रमजान के मौके पर वाजपेयी ने जम्‍मू-कश्‍मीर में चल रहे आतंकवाद विरोधी अभियानों पर छह महीने के लिए 'युद्धविराम' लागू करने का ऐलान कर दिया। इस दौरान सैन्‍य बल चुपचाप नहीं बैठे हां आतंकवादियों के खिलाफ उनका आक्रामक रुख जरूर थोड़ा शांत रहा। 'अब आगे क्‍या करना चाहिए?'उस कदम के बारे में केंद्रीय गृहमंत्री लाल कृष्‍ण आडवाणी अपनी आत्‍मकथा 'माई कंट्री माई लाइफ' में दावा करते हैं कि इसके नतीजे अच्‍छे रहे, जम्‍मू-कश्‍मीर की जनता में गुमराह युवक आतंकवाद की राह छोड़कर मुख्‍य धारा में लौटने लगे। छह महीने का यह इकतरफा युद्ध विराम खत्‍म होने वाला था कि अटल बिहारी वाजपेयी ने लाल कृष्‍ण आडवाणी और विदेश मंत्री जसवंत सिंह से एक दिन पूछा, 'अब आगे क्‍या करना चाहिए?' आडवाणी ने रखा प्रस्‍ताव मई 2001 में की एक दोपहर जब अटल बिहारी वाजपेयी, जसवंत सिंह और लाल कृष्‍ण आडवाणी लंच ले रहे थे, आडवाणी बोले, 'अटल जी, आप जनरल परवेज मुशर्रफ को भारत आकर वार्ता करने के लिए आमंत्रित क्‍यों नहीं करते?' आडवाणी का यह प्रस्‍ताव उस बैकडोर डिप्‍लोमेसी से मिले संकेतों पर आधरित था जिससे पता चला था कि खुद परवेज मुशर्रफ अंतरराष्‍ट्रीय बिरादरी में अलग-थलग पड़े पाकिस्‍तान की छवि बदलना चाहते हैं। वह इसके लिए भारत से बातचीत के लिए भी इच्‍छुक थे। मान गए अटल बिहारी बहरहाल, शुरुआती बातचीत के बाद अटल बिहारी वाजपेयी को यह पेशकश अच्‍छी लगी। इससे देश और विदेश में उनकी छवि ऐसे नेता की बनने वाली थी जो पड़ोसियों के साथ सुलह के लिए खुद आगे बढ़ने के लिए तैयार था। वार्ता के लिए आगरा का चयन किया गया, तारीखें तय हो गईं और पूरी दुनिया उम्‍मीद और जिज्ञासा भरी निगाहों से इस ऐतिहासिक पल का इंतजार करने लगी। ताजा थे करगिल के जख्‍म करगिल युद्ध के ठीक दो साल बाद, यानि 14 जुलाई 2001 को परवेज मुशर्रफ अपनी पत्‍नी के साथ दिल्‍ली में राष्‍ट्रपत‍ि भवन पहुंचे। करगिल युद्ध के घाव ताजा थे लेकिन उम्‍मीद थी कि सदियों की कड़वाहट मिटाने की पहल हो चुकी है। यहां पाक राष्‍ट्रपति परवेज मुशर्रफ से मिलने गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी पहुंचे। शुरुआती औपचारिक बातचीत के बाद आडवाणी ने मुशर्रफ से कहा, 'मैं हाल ही में तुर्की से लौटा हूं। भारत के साथ तुर्की ने प्रत्‍यपर्ण संधि की है, क्‍यों न भारत और पाकिस्‍तान भी ऐसी ही संधि कर लें ताकि एक-दूसरे के देश में छिपे अपराधियों को कानून के कटघरे में खड़ा किया जा सके?' मुशर्रफ बोले, 'हां क्‍यों नहीं, दोनों देशों के बीच प्रत्‍यर्पण संधि होनी चाहिए।' मुशर्रफ का इतना कहना था कि आडवाणी कह उठे, 'औपचारिक तौर पर यह संधि लागू हो इससे पहले अगर आप 1993 के मुंबई बम धमाकों के जिम्‍मेदार दाऊद इब्राहिम को भारत सौंप दें तो शांति प्रक्रिया आगे बढ़ाने में बड़ी मदद मिलेगी।' उड़ा मुशर्रफ के चेहरे का रंग यह सुनने के बाद मुशर्रफ के चेहरे का रंग बदल गया। उन्‍होंने कहा, 'आडवाणी जी मैं आपकी चाल समझ गया। मैं आपको साफ बता देना चाहता हूं कि दाऊद इब्राहिम पाकिस्‍तान में नहीं है।' बरसों बाद एक पाक राजनयिक ने आडवाणी को बताया कि जनरल मुशर्रफ उस दिन सफेद झूठ बोल रहे थे। एक किस्‍म से आगरा समझौता वार्ता शुरू होने से पहले ही खत्‍म हो गई। परवेज मुशर्रफ अपने प्रतिनिधि मंडल और अफसरों के साथ आगरा पहुंचे। 16 जुलाई को दोनों देशों की ओर से संयुक्‍त प्रस्‍ताव लाया जाना था लेकिन पाकिस्‍तान न तो शिमला समझौते का जिक्र करने को राजी था न लाहौर समझौते का। सीमा पार आतंकवाद पर रोक लगाने के मुद्दे पर भी तैयार नहीं था उलटे उसने कश्‍मीर मुद्दे को पूरी वार्ता के केंद्र में लाने की कोशिश की। खाली हाथ लौटे परवेज मुशर्रफनतीजा यह निकला कि पाकिस्‍तान के राष्‍ट्रपति बिना क‍िसी समझौते के खाली हाथ अपने घर लौट गए। उन्‍हें ख्‍वाजा मुईनुद्दीन चिश्‍ती की दरगाह भी जाना था लेकिन वहां भी नहीं गए। उनके जाने के बाद जब पत्रकारों ने जसवंत सिंह से पूछा कि क्‍या भारत सरकार ने जनरल मुशर्रफ को दरगाह नहीं जाने दिया। तो जसवंत सिंह का जवाब था, 'मेरी क्‍या औकात कि मैं उन्‍हें गरीब नवाज के पास जाने से रोकूं, कहते हैं कि जब तक गरीब नवाज का हुकुम नहीं होता कोई वहां नहीं जा सकता।' यों याद किया मुशर्रफ ने आगरा को 5 साल बाद 2006 में जनरल परवेज मुशर्रफ ने अपनी आत्‍मकथा 'इन द लाइन ऑफ फायर' लिखी तो इस वाकये का जिक्र कुछ यूं किया, 'रात करीब 11 बजे भारतीय प्रधानमंत्री वाजपेयी से मुलाकात हुई। माहौल गंभीर था। मैंने उन्‍हें दो टूक शब्‍दों में कह दिया कि ऐसा लगता है कि कोई ऐसा शख्‍स है जो हम दोनों के भी ऊपर है और जिसके आगे हम दोनों की ही नहीं चली। इससे हम दोनों ही शर्मिंदा हुए हैं।' आडवाणी ने माई कंट्री माई लाइफ में ल‍िखा है, 'जनरल ने मेरा नाम तो नहीं लिया था लेकिन उनका इशारा मेरी ही तरफ था।' बाद में अटल बिहारी वाजपेयी ने 2006 में एक प्रेस नोट जारी करके मुशर्रफ के इस बयान को सरासर झूठ बताया और कहा कि उनका अड़‍ियल रवैया, कश्‍मीर में आतंकवाद को आजादी की लड़ाई साबित करने की कोशिश ही आगरा समझौते को विफल करने में अहम साबित हुई।


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